पढ़िए गुलाम भारत के इकलौते आजाद की कहानी उनकी 118 वीं जयंती के अवसर पर

Sir iska title hai ~ पढ़िए गुलाम भारत के इकलौते आजाद की कहानी उनकी 118 वीं जयंती के अवसर पर.

Chandra Shekhar Azad :23 जुलाई सन् 1906 को पंडित सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के यहां जन्मे आजाद का प्रारंभिक जीवन सामान्य ही रहा. इनका गांव आदिवासी क्षेत्र में था. इसलिए बचपन में हीं उन्होंने भील बालकों के साथ से धनुष बाण चलाना सीख लिया. बढ़ती उम्र के साथ ही उनके हृदय में देशप्रेम भी जन्म लेने लगा.

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उनके जीवन में परिवर्तन तब आया जब उनकी मुलाकात मन्मनाथ गुप्ता और प्रवेश चटर्जी से हुई. इनसे संपर्क के बाद आजाद क्रांतिकारी दल के सदस्य बन गए. जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद से उनका मन क्रांतिकारी बन चुका था.वह जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में अन्य छात्रों के साथ ब्रिटिश सरकार के विरोध में उतर आए. तब उनकी गिरफ्तारी भी हुई.

कोर्ट में जब उन्हें अदालत में पेश किया गया तब उन्होंने अदालत में अपना नाम आजाद तो पिता का नाम स्वाधीनता और अपना पता जेलखाना बताया. बालक आजाद ने माफी को अस्वीकार करते हुए 15 बेतों की सजा स्वीकार की. आजाद पर जब कोड़े बरसाए गए तब हर प्रहार पर दर्द से निकली पीड़ा के सिवाय उनके मुंह से भारत माता की जय निकलता का नारा निकलता था.

इसके बाद से आजाद को जीते जी अंग्रेज कभी पकड़ नहीं पाए. वे हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन जो की एक क्रांतिकार संगठन था उसके सदस्य तथा अध्यक्ष भी रहें हैं. एचआरए के सभी सदस्य आजाद को पंडित जी कहकर बुलाया करते थे.

17 दिसंबर 1928 को चन्द्र शेखर आजाद ने भगत सिंह और राजगुरु के साथ मिलकर पुलिस अधीक्षक सांडर्स को मार लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लिया. इसके बाद चंद्रशेखर आजाद के ही नेतृत्व में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली असेंबली में बम्ब विस्फोट किया था. आजाद जब तक जीवित रहे तब तक उन्होंने अंग्रेजो की नाक पर दम करके रखा.

आजाद भेश बदलने में माहिर थे इसलिए उन्हें पकड़ना ब्रिटिश पुलिस के लिए असंभव था. 27 फरबरी 1937 को आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में बैठे हुए थे तभी पुलिस अधिकारी नाटबाबर पूरे सैन्यबल के साथ वहां आ पहुंचा और गोलीबारी करने लगा. जवाब में आजाद ने भी जमकर गोलीबारी की परंतु जब उनकी बंदूक में सिर्फ एक ही गोली बची तो उन्होंने उसे खुद के उपर ही चलाकर भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी.

अंग्रजो में आजाद के नाम की इतनी दहशत थी की आजाद के पार्थिव शरीर के पास आने तक का साहस किसी भी अंग्रेज़ी सिपाही के अंदर नहीं था. अंग्रेजों ने आजाद के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार बिना किसी को सूचना दिए ही कर डाला था. जनता को जैसे ही इसकी सूचना मिली सभी अल्फ्रेड पार्क पर इकठ्ठा होने लगे. आजाद की यह शहादत आजादी की क्रांति के लिए महत्वपूर्ण उत्पेरक बनी.

अपनी बहादुरी और देश प्रेम के बलबूते आजाद ने अपने जीवन की कहानी इतिहास के पन्नों पर अमर कर दी. जब भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की चर्चा की जाती है तब–तब हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के पंडित जी का नाम सर्वप्रथम आता है. अंत में चंद्रशेखर आजाद की बहुचर्चित पंक्ति के साथ आपसे विदा लूंगा पंक्ति है ~”भारत की फिजाओं को सदा याद रहूंगा मैं आजाद था आजाद हूं आजाद रहूंगा मैं”.

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