International Museum Day :दुर्लभ हो रहे परम्परागत बीजों को सहेजते गुमनामी का रूप ले रहे प्राचीन कृषि उपकरणों का किया संग्रह

International Museum Day :आज अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस है किसी दिवस को जब अंतरराष्ट्रीय य राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाय तो उसका आशय यह होता है कि वह संकटापन्न स्थिति में है अस्तु लोग उस दिवस के महत्व को समझें। आज हम आपको जिले के छोटे से गांव पिथौराबाद के पद्मश्री बाबूलाल दाहिया से परिचित कराया रहे हैं जिन्होंने समूचे गांव को तीर्थ स्थल के रूप में परिवर्तित कर परम्परागत दुर्लभ हो रहे अनाजो के संरक्षण में उम्र गुजार दी है।
उनके पास 200 से अधिक धान की परंपरागत दुर्लभ किस्में 15 के लगभग गेंहू व मोटे अनाज सहित सब्जियों आदि की किस्मो का खजाना तो है ही अब 82 वर्ष की उम्र में श्री दाहिया ने गाँव की शिल्प वस्तुएं जो कभी कृषि आश्रित समाज की जीवन शैली से जुड़ी हुई थी ऐसे 2000 से अधिक वस्तुओं को संग्रहीत कर घर के ऊपरी मंजिल पर बने तीन कमरों को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया है। जहां विभिन्न महाविद्यालयों के छात्र छात्राओं सहित पर्यावरण प्रेमियों का आगमन रहा आता है वहीं अब कई बार ब्रिटिश अमेरिका के विदेशी टूरिस्ट भी अवलोकन करने आते रहते हैं.

पद्मश्री बाबूलाल दाहिया बताते है की जब हम राजे महाराजों के किसी प्राचीन बस्तुओ के संग्रहालय में जाते हैं तो वहां उनके भाला, बरछी, ढाल, तलवार आदि सभी प्राचीन आयुध अपने इतिहास के साथ सुब्यवस्थित रूप में मिल जाते हैं। पर हमारी खेती की पद्धति और रहन-सहन बदल जाने से कृषि आश्रिति समाज के लगभग 2000 तरह के तमाम उपकरण यन्त्र एवं बर्तन चलन से बाहर हो गुमनामी का रूप ले चुके हैं । मशीन युग आने और खेती की पद्धति बदल जाने से आज वह बस्तुए या तो घर के किसी कोने में घूल फाँक रही हैं य वहां से निकाल बाहर कर दी गई हैं। इसलिए उन्होंने लकड़ी के उपकरण ,लौह उपकरण ,मिट्टी के बर्तन एवं वस्तुएं, बाँस के बर्तन एवं सामग्री, धातु के बर्तन,पत्थर के बर्तन एवं उपकरण,चर्म बस्तुए सभी मिलकर लगभग 2000 से अधिक वस्तुएं एक ही छत के नीचे एकत्र किया है।जिसको वर्तमान व भावी पीढ़ी इस संग्रहालय का भ्रमण करके कृषि की विकास यात्रा के बारे में ज्ञान हासिल कर सकेंगी। उनके इस सपने को साकार करने उनके गांव सहित जिले व प्रदेश के अन्य राज्यों के मित्रों का भरपूर सहयोग मिल रहा है इससे जुड़ी अमूल्य वस्तुएं भी कुछ महानुभवों ने भेट करना शुरू कर दिया है। उन दान दाताओं की बस्तुए न सिर्फ म्यूजियम में सजाकर रखी गई है बल्कि उनके चित्र भी लगाने की योजना है ।

गांव से संचालित थी विकास की धुरी ,7 शिल्पी स्वनिर्मित बस्तुए समूचे समाज को देते थे।

श्री दाहिया बताते हैं की संग्रहालय में रखी गई वस्तुएं कृषि आश्रित समाज की जीवन शैली से जुड़ी थी और गाँव के शिल्पी ही उन्हें बनाते थे। 7 ऐसे शिल्पी थे जो अपनी स्वनिर्मित बस्तुए समूचे समाज को देते थे। जिनमे लौह शिल्पी, काष्ठ शिल्पी,मृदा शिल्पी प्रस्तर शिल्पी,बाँस शिल्पी, चर्म शिल्पी, धातु शिल्पी, इन सातों ग्रामीण शिल्पियो के बनाए यंत्रों ,उपकरणों एवं परिकल्पित वस्तुएं करीब 2000 से अधिक वस्तुएं संग्रहालय मे रखी गई है। इन तमाम शिल्पियो ने किसी संस्थान में जाकर कभी इसका प्रशिक्षण नही लिया था? सारे उपकरण सारे यंत्र खुद ही बनाए और समस्त हुनर की स्वयं ही परिकल्पना करते थे । गाँव की अपनी उस आत्मनिर्भर सरकार में काश्तकार,शिल्पकार एवं कृषि श्रमिक समाज के तमाम लोग थे जिनके सभी के कृषि उपज के हिस्से बंधे थे।और ब्यापार बहुत अल्प अवस्था में था । बिकास की धुरी ही गाँव से संचालित थी। और उस धुरी को घुमाने वाले हमारे इन देशज इंजीनियर ही थे।

बहुउद्देश्यीय अस्त्र-शस्त्र भी

कृषि उपकरणों पर आधारित संग्रहालय में जहां अनेक कृषि यंत्र उपकरण एवं बर्तन है वहीं कुछ अस्त्र शस्त्र भी है। क्योंकि किसान खेत रात बिरात जाते और वहां बस कर जंगली जानवरो रखवाली करते थे, तो ऐसे समय में आसन्न खतरों से कुछ अस्त्र-शस्त्र भी रखना जरूरी होता था। इनमें बरछी, गड़ासा, बल्लम, फरसा, तलवार या गुप्ती आति कुल्हाड़ी तो रोजमर्रा की हाथ में रखने वाला अस्त्र थी

बनाने वाले ही नहीं बचे

पद्मश्री दाहिया के अनुसार अभी भी कुछ ऐसी परंपरागत चीजें हैं, जिन्हें जुटाने के प्रयास जारी हैं। कुछ चीजें मिल नहीं रहीं, जैसे डोली है उसे बनाने वाले मिस्त्री अब नहीं बचे। तेल पेरने की देसी कोल्हू नहीं मिल रहे।

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