निरंजन शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार)।। उपरोक्त पंक्ति नागपुर में जागनाथ बुधवारी शिव मंदिर परिसर के पाषाण-द्वार पर लगे शिलालेख में उकेरी गई है । हर-हर महादेव सांबा- सांबा यानी मराठी में शंकर जी । यह मंदिर यहां के राजगोंड़ जाटबा के शासनकाल से भी पुराना बताया जाता है। इसमें मंदिर के अंदर मंदिर बने हैं। यहां काले पत्थर में बनी भील और भिल्लनी की विलक्षण प्रतिमा है। यहां जागोबा नाम के एक तपस्वी प्राचीन काल में रहते थे जिन्होंने साढ़े सात शिवलिंग स्थापित कराए । पांच लिंग तो अलग-अलग स्थान पर हैं पर ढाई शिवलिंग एक ही जगह पर हैं। एक शिवलिंग में बांया हाथ रखिए दूसरे में दांया और दोनों के बीच बने आधे शिवलिंग में अपना मस्तक रख दीजिए ।
यह तो केवल जागनाथ बुधवारी मंदिर की दास्तान है । नागपुर में 1 जनवरी 2005 से 15 सितंबर 2008 तक यहां के दैनिक भास्कर में अपने संपादकीय कार्य के बीच घूम-घूम कर मैंने सैकड़ों शिवलिंगों पर माथा टेका । अखबार में रविवार को एक कॉलम ही “परिक्रमा” नाम से छपता था।
नागपुर ; यह एक प्राचीन शिव क्षेत्र है । कहीं मंदिरों में तो कहीं वटवृक्षों के साए में सैकड़ों पुरातन शिवलिंग यहां देखे जा सकते हैं । वास्तव में, पांचवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी और इसके बाद तक भी देश में शिवलिंग की स्थापना और पूजन की धूम रही है। अनेक शिव संप्रदाय व शिव क्षेत्र इस काल में विकसित हुए । नागपुर के प्राचीन मंदिरों में यादव-वाकाटक राज्यकालीन शिवलिंगों से लेकर अभी दो-तीन सौ साल पुराने तक अनेक प्रकार के मनभावन शिवलिंग स्थापित हैं।
सन 1814-16 के दरम्यान नागपुर के मंदिरों को सूचीबद्ध करने वाले इतिहासकार औरंगाबादकर ने 94 बड़े मंदिरों की सूची बनाई थी, जिसमें 75 मंदिर शंकर जी के थे, जिनमें भव्य शिवलिंग स्थापित थे ।
शिवलिंग क्या है ? इस सवाल के विभिन्न जवाब हैं पर शिवपुराण में जो कहा गया है- “लिंग स्तंभ से हजारों अग्नि ज्वालाएं निकल रही हैं । उसका आदि अंत कहीं नहीं है । बीच में ओंकार का चिन्ह जगमग हो रहा है।”
चिटणिस पार्क के पीछे बेनी गिरी (नागा) के एक दर्जन मंदिरों में मैंने एक में विलक्षण शिवलिंग देखा । इसके सामने काले पत्थर का एक मस्त नंदी आसीन है और एक नंदी शिवलिंग की जलहरी के नीचे इस तरह बैठा दिख रहा है कि जैसे सारे शिवलिंग और समूची जलहरी का भार उसी के ऊपर है। बताया गया कि गिरी नागाओं में एक ताकतवर महंत दलपत बेनी गिरी हुआ । यह मंदिर उसी का समाधि स्थल है।
गिरी गोसावी नागा जिनके द्वारा स्थापित यह मंदिर हैं, भोंसले राजाओं के बड़े चहेते थे । वे इन नागाओं की बुद्धि और ताकत का उपयोग समय-समय पर करते थे। नागाओं के बारे में कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने कापालिक, तांत्रिक और शाक्त पंथ में आस्था रखने वाले इन वर्गों को प्रभावित कर वैदिक धर्म में रंगा और इनके अखाड़े बने । निरंजनी, निर्वाणी, सनातनी (जूना), अटल, अभान, अग्नि व आनंद नामक अखाड़े देश के कई स्थलों में आज भी विद्यमान हैं और नागपुर तो ऐसा लगता है कि जैसे उनका मुख्यालय ही रहा हो।
दक्षिणापथ कहा जाने वाला यह क्षेत्र नाग नदी के इर्द-गिर्द बसे इन नागाओं के लिए एक अभयारण्य की तरह था हालांकि अब इनके कई स्थल नेस्तनाबूद हो गए हैं तो कहीं पर इनके शिव मंदिर सघन आबादी में छुप गए हैं। इन विरक्त और गृहस्थ नागाओं के उत्तराधिकारी हर जगह की तरह यहां भी मंदिरों से जुड़ी जमीन बेंचकर खा रहे हैं।
बहरहाल। सीताबर्डी में गणेश टेकड़ी मार्ग पर “मुंडा देवळ” है। हिंदी में इसे मुंडा मंदिर समझेंगे। दरअसल इसमें शिखर नहीं है। मुझे जब यह पता चला कि यह मंदिर अंग्रेजों ने बनवाया है तो बड़ा आश्चर्य हुआ। इसकी गहराई में गया तो पता चला कि गुंडो लक्ष्मण दंडिगे नामक एक कन्नड़ ब्राह्मण था । ग्यारह भाषाओं का जानकार यह व्यक्ति मैसूर में टीपू सुल्तान की नौकरी में था। टीपू की हार के बाद वह अंग्रेजों के संपर्क में आया और अंग्रेजों ने मराठी, हिंदी, अंग्रेजी, कन्नड़ आदि भाषाएं जानने की उसकी प्रतिभा के मद्देनजर उसे अपने साथ ले लिया ।
सन 1804 में जब नागपुर में एल्फिंस्टन नामक पहला रेजिडेंस नियुक्त हुआ तो उनके साथ 100 रुपया मासिक पाने वाला गुंडो लक्ष्मण दंडिगे उनके पीए की तरह साथ में रहता । सन 1818 में सीताबर्डी के युद्ध व उसमें अप्पा साहब भोंसले की पराजय के बाद गुंडों दंडिगे को अंग्रेजों ने भोंसला राज्य में अपना मैनेजर नियुक्त कर दिया लेकिन स्थानीय मराठीजन दंडिगे से खुर्राए हुए थे। नाराज भीड़ ने दंडिगे का घर जला डाला।
कुछ दिनों बाद 1820-22 में अंग्रेजों ने अपने मुंशी दंडिगे के परिवार के लिए एक बड़ा घर बनवाया तो घर के सामने उनकी शिवभक्त पत्नी की मंशा के अनुरूप एक शिव मंदिर भी बनवा दिया । इस मंदिर में सोने का कलश चढ़ाया जाना था पर कलश चढ़ाए जाने के पहले घर के एक प्रमुख सदस्य बच्चा राव दंडिगे की मृत्यु हो गई। इस अपशकुन के बाद मंदिर मुंडा ही रह गया। अब इस मंदिर में बैठे सिद्धेश्वर महादेव का नाम कोई नहीं लेता। ज्यादातर इसे मुंडा देवळ ही कहते हैं। अनेक मराठीजन इसे “भौंडा देवळ” भी कहते हैं।
और इस पोस्ट में जिस शिवलिंग की मैंने तस्वीर लगाई है वह इंदौरा और जरीपटका के मध्य स्थित “मोठा शिव” यानी बड़े शिव मंदिर की है। जरीपटका को हिंदी में समझें तो यह जरी के कपड़े की पताका है । अभी आज जरीपटका सतना के सिंधी कैंप की तरह नागपुर की सिंधी बस्ती बन गया है पर कभी यह स्थान खाली पड़ा था । सन 1738-40 के आसपास राजे रघुजी प्रथम ने यहां अपना भगवा झंडा गाड़ कर इस स्थल का उपयोग सेना के जवानों के लिए करना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे यह जगह “जरीपटका” नाम से प्रसिद्ध हो गई । बगल में इंदौरा कहे जाने वाले स्थान पर मोठा शिव का मंदिर भोंसले शासकों ने बनवाया । मंदिर के चारों और किलानुमा चहारदीवारी है । जरीपटका में इकट्ठा होने वाले सैनिक पूजन-दर्शन के लिए इस मोठा शिव मंदिर पहुंचते थे और यहीं से युद्धस्थल की ओर रवानगी होती थी।
इस मंदिर के बारे में लिखने के लिए मैं यहां तीन-चार बार गया। वहां प्रायः एक सफेद साड़ी वाली महिला को लगभग हर बार देखा । लोगों ने बताया कि वह विधवा है । मोहल्ले के मनचलों से त्रस्त है और शंकर जी की शरण में आकर यहां घंटों बैठी रहती है।