Mother’s Day Special – मदर्स डे आते ही सोशल मीडिया और व्हाट्सप्प के स्टेटस पर माँ के साथ सेल्फीज़ की बाढ़ सी आ जाती है, जो कभी माँ के लिए दो मिनट का समय नहीं निकाल पाते या जिनका संबंध माँ के साथ केवल भोजन और अपनी आवश्यकता की खोई हुई वस्तुएँ माँगने तक ही सीमित है, वो भी मातृ दिवस पर माँ के साथ फोटो लेकर बढ़िया सी भाव विभोर पंक्तियाँ लिखकर पोस्ट करना नहीं भूलते।
लेकिन प्रश्न ये है कि उसके बाद क्या?
क्या माँ के लिए एक दिवस ही काफ़ी है?
ये कौन सी परम्परा चल पड़ी है, कौन हैं इस बाज़ारवाद के जन्मदाता,क्या ये केवल भावनाओं से खेलने का एक साधन मात्र है या फिर हमनें हर संबंध के लिए एक दिन तय कर स्वयं को एक अपराधबोध के भाव से मुक्त कर लिया है।
मुझे स्मरण नहीं आ रहा कि आज से 20 या 25 वर्ष पहले तक हम ऐसे तथाकथित दिवस मनाते थे?
अब नित एक नया दिवस और फिर उससे मचती भगदड़ बाज़ारों में सोशल मीडिया में बस यहीं तक है हर दिवस कि सीमा, विचारणीय है हम माँ को एक दिवस में कैसे बाँध सकते हैं?
वैसे मुझे कोई दिवस मनाने या मनाये जाने से कोई आपत्ति नहीं है किन्तु विचारणीय है कि जिस माँ का ऋण स्वयं देवता भी नहीं चुका सके उनके लिए हम एक दिवस का ढिंढोरा पीट कर कैसे स्वयं को ऋण मुक्त मान सकते हैं, बहुत अच्छा है आप इस दिवस को सहर्ष मनाइये किन्तु माँ के महत्त्व को केवल एक दिन नहीं अपितु प्रतिदिन स्मरण रखिये।
माँ होना या माँ बनना एक नारी के जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य ही नहीं बल्कि सबसे बड़ा त्याग भी होता है, अपने सुगठित तन को छिन्न भिन्न कर, अपनी सुंदरता कि परवाह किये बिना एक स्त्री आतुर होती है मातृत्व के सुख को कोई भी कीमत देकर भोगने के लिए, वो दो बार भी विचार नहीं करती कि उसकी स्वतन्त्रता,उसकी नींद, उसका सौंदर्य सब कुछ दांव पर लगा जा रहा है, उसे बस स्वयं को सम्पूर्णता कि ओर ले जाना होता है।
किसी महान व्यक्ति ने कहा था कि “दस संतानें माँ हँसकर पाल सकती है किन्तु दस संतानें एक माँ को दस बार बाँटती हैं “आज भी वृद्धाश्रम में अधिकतर माएं सुशिक्षित और सर्वसम्पन्न संतानों की हैं, ये मैं नहीं कहती आप स्वयं जा कर देख लें… कुछ वर्ष पहले बैंगलोर के एक वृद्धाश्रम में एक माताजी से भेंट हुई उन्होंने बताया की उनका बेटा, बेटी, बहु और दामाद सभी डॉक्टर्स हैं और अमेरिका में सेटल हैं वो केवल मुझे वहाँ नहीं ले जाते हालांकि मैं जाना चाहती हूँ पर वो मुझे हर माह पैसे भेजते हैं और मिलने भी नहीं आते, मुझे उनकी याद बहुत आती है इतना कहते कहते अम्मा फ़फ़क पड़ी और मेरे बच्चों को अपने सीने से लगा लिया, ये बहुत मार्मिक था।
माँ शब्द में ये सारा संसार ही समाया हुआ है लेकिन आज आधुनिकता के आधीन होकर हम अपने संस्कार और मूल्य सब कुछ भूलते जा रहे हैं, क्योंकि हमें एक आधुनिक शिक्षा दी जाती है “आत्मनिर्भर बनो ” जिसका अर्थ सर्वप्रथम युवाओं ने गृहत्याग ही समझा, माता-पिता से अलग एक दुनिया बसाकर, अपने कर्तव्यों से विमुख होकर आज की पीढ़ी स्वयं को सहज पाती है, माता-पिता का बंधन या रोक टोक उन्हें अब संकुचित मानसिकता लगती है।
ऐसे में हम कैसे ये उम्मीद करें की केवल एक मातृ दिवस मना लेने से आप समाज की नज़र में अच्छे बन जाते हैं, माँ को सम्मान देना और समय देना आपने मदर्स डे से कहीं अधिक सुखमय होगा, जिसने आपको अपने रक्त से सींचा हो वो आपसे इसके अतिरिक्त और कोई अपेक्षा नहीं रखती, आपको प्रसन्न देखना उसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, जिसने अनगिनत रातों की नींदें आप पर न्योछावर की हैं वो आपसे आपका सुकून कभी नहीं मांग सकती, अपने दोनों हाथों को उठाकर केवल दुआ में आपका कल्याण ही मांगती एक माँ आपके मदर्स डे की मोहताज नहीं होनी चाहिए।
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प्रतिदिन माँ को अपने व्यस्ततम जीवन में से थोड़ा सा समय आवश्य दें, आप कहीं भी रहें किन्तु उनके विश्वास को बनाकर रखें, वृद्ध होती माँ भी उतना ही असुरक्षित अनुभव करती है जितना की आपने किया था जब आप छोटे थे उनके इस भय को यथार्थ में बदलने मत दीजिये, क्योंकि आपकी संताने भी वो ही सब सीखती हैं जो आप उन्हें दिखाते हैं अतः अपने बच्चों को संस्कारों से सिंचित कीजिये,जिससे आपके बच्चे आपको केवल मदर्स डे के दिन ही ना याद करें।
माँ के लिए एक दिन नहीं
माँ से ही हर एक दिन।
प्राची मिश्रा,कवयित्री
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