सरकारी ईँ संस्था, कइसा बनी गुलाम। सत्ता की मरजी रहय, इनके सगळे काम!

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पद्मश्री बाबूलाल दाहिया के बघेली दोहे

मित्रों! चुनाव आयोग एक ऐसा आयोग होता है जिसका सरकारी संस्थान होने के बाबजूद भी स्वतन्त्र रहकर निष्पक्ष चुनाव कराना नैतिक दायित्व माना जाता है। पर वह अगर सत्ता रूढ़ दल का खरीदा हुआ गुलाम सा दिखने लगे तो वह लोकतंत्र के लिए बहुत ही घातक है।लेकिन दुर्भाग्य है कि वह कुछ वर्षों से ऐसा ही बना हुआ है। आज के दोहे उसी पर केंद्रित हैं —

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अब चुनाव आयोग नहि,
टीं. एन. शेषन केर।
वा चुनाव आए बनय,
तबय गऊ हर बेर।।

कीन्हिसि गलत विपक्ष ता,
चट हुरपेटिस धाय।
लेकिन सत्ता के किहे,
बइठ शांत पगुराय।।

लोकतंत्र का कइ रहा,
कउन मेंर बरबाद।
कहय निता आजाद पय,
खुद फँस जाय बिबाद।।

एक पार्टी का दिखय,
पूरी तरन गुलाम।
ओहिन के खातिर करय,
मेर मेर के काम।।

ओखे मन मांही बसय,
दोहरे पन का भेद।
देख देख करतूत अब,
होंय लाग है खेद।।

सरकारी ईँ संस्था,
कइसा बनी गुलाम।
सत्ता की मरजी रहय,
इनके सगळे काम।।

एक पार्टी के बनय,
पूर जना परकोठ।
ओखे खातिर सिलर अस,
पूर जात हैं ओठ।।

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सब कनून अउ कायदा,
पालन करय विपक्ष।
लेकिन सत्ता के निता,
बदलय इनकर लक्ष।।

अपनी गरिमा का गिरय,
कहां दिहिन पहुँचाय।
बनी बनाई साख सब,
माटी दिहिन मिलाय।।

पद्मश्री बाबूलाल दाहिया

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